सोमवार, 18 सितंबर 2017

चुप सो जा...मेरे मन ...चुप सो जा..!!!

   Multiple faces of a single person

       
 रात छाई हैघनी, पर कल सुबह होनी नयी,
        कर बन्द आँखें , रख  सब्र तू ,
            मत रो ,मुझे न यूँ सता.......
*चुप सो जा........मेरे मन.......चुप सो जा*.....!!!
    
 तब तक तू चुप सोया ही रह !
     जब तक न हो जाये सुबह ;
   नींद में सपनों की दुनिया तू सजा .........
*चुप सो जा.........मेरे मन......चुप सो जा*.......!!!
      
सोना जरुरी है, नयी शुरुआत करनी है ,
      भूलकर सारी मुसीबत, आस भरनी है ;
   जिन्दगी के खेल फिर-फिर खेलने तू जा.....
*चुप सो जा......मेरे मन........चुप सो जा*............!!!
     
सोकर जगेगा, तब नया सा प्राण पायेगा ,
    जो खो दिया अब तक, उसे भी भूल जायेगा ;
   पाकर नया कुछ, फिर पुराना तू यहाँ खो जा.......
*चुप सो जा ..........मेरे मन.........चुप सो जा*........!!!
    
दस्तूर हैं दुनिया के कुछ, तू भी सीख ले ;
     है सुरमई सुबह यहाँ,  तो साँझ भी ढ़ले ,
    चिलमिलाती धूप है, तो स्याह सी है रात भी....
     है तपिश जब दुपहरी,तो छाँव की सौगात भी...
     दुःख नरक से लग रहे तो, स्वर्ग भी है जिन्दगी ;
     चाह सुख की है तुझे तो ,कर ले तू भी बन्दगी....!
       पलकों में उम्मीदों के सपने तू सजा...... ...!
चुप सो जा.......मेरे मन...........चुप सो जा...........!!!
                                                               
                                  
  चित्र- "साभार गूगल  से"

बुधवार, 13 सितंबर 2017

जाने कब खत्म होगा ,ये इंतज़ार......



old broken house in a plateau surrounded with water from all sides

 ये अमावस की अंधेरी रात
तिस पर अनवरत बरसती
       ये मुई बरसात
 टपक रही मेरी झोपड़ी
      की घास-फूस 
      भीगती सिकुड़ती
       मिट्टी की दीवारें 
     जाने कब खत्म होगा
          ये इन्तजार ?
      कब होगी सुबह..?
           और मिटेगा
        ये घना अंधकार !
       थम ही जायेगी किसी पल 
            फिर यह बरसात
      तब चमकेंगी किरणें रवि की 
       खिलखिलाती गुनगुनी सी ।
       सूख भी जायेंगी धीरे-धीरे 
          ये भीगी दीवारें
    गुनगुनायेंगी गीत आशाओं के,
    मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ ।
   झूम उठेगी इसकी घास - फूस की छत
           बहेगी जब मधुर बयार
 फिर भूल कर सारे गम करेंंगे हम 
         यूँ पूनम का इंतज़ार !
      जब घुप्प  रात्रि में भी
         चाँद की चाँदनी में
          साफ नजर आयेगी
  मेरी झोपड़ी,  अपने अस्तित्व के साथ ।

          
                                      
            चित्र - "साभार गूगल से"

सोमवार, 4 सितंबर 2017

आओ बुढ़ापा जिएं ..



couple couple on a walk

वृद्धावस्था अभिशाप नहीं । यदि आर्थिक सक्षमता है तो मानसिक कमजोर नहीं बनना । सहानुभूति और दया का पात्र न बनकर, मनोबल रखते हुए आत्मविश्वास के साथ वृद्धावस्था को भी जिन्दादिली से जीने की कोशिश जो करते हैंं , वे वृृद्ध अनुकरणीय बन जाते है ।
मानसिक दुर्बलता से निकलने के लिए यदि कुछ ऐसा सोचें तो -



जी लिया बचपन , जी ली जवानी
      आओ बुढापा जिएं ।
यही तो समय है, स्वयं को निखारेंं
     जानेंं कि हम कौन हैं ?

    कभी नाम पहचान था
फिर हुआ काम पहचान अपनी
  आगे रिश्तों से जाने गये
 सांसारिकता में हम खो गये ।
ये तन तो है साधन जीवन सफर का
    ये पहचान किरदार है
इन्हीं में उलझकर क्या जीवन बिताना
जरा अब तो जाने ,कहाँँ हमको जाना ?
यही तो समय है स्वयं को पहचाने
        जाने कि हम कौन हैं ?

क्या याद बचपन को करना 
 क्या फिर जवानी पे मरना 
   यदि ये मोह माया रहेगी
तो फिर - फिर ये काया मिलेगी 
भवसागर की लहरों में आकर 
   क्या डूबना क्या उतरना  ?
जरा ध्यान प्रभु का करें हम,
आत्मज्ञान खुद को तो दें हम
यही तो समय है , स्वयं को निखारें 
जाने कि हम कौन हैं  ?

अभिशाप क्यों हम समझें इसे
     निरानन्द बस तन ही है
आनन्द उत्साह मन में भरें तो,
    जवाँ आज भी मन ये है।
अतीती स्मृतियों से बाहर निकलके
नयेपन को मन से स्वीकार कर के
  वक्त के संग बदलते चलें
सुगम से सफर की हो कामनाएं
यही तो समय है स्वयं को निखारें
        जाने कि हम कौन हैं ?

क्या रोना अब क्या पछताना ?
क्या क्या किया क्यों गिनाना
  हम वृक्ष ऊँचे सबसे बड़े
छाँव की आस फिर क्यों लगाना
  सबको क्षमा, प्यार देंगे अगर,
  ऊपर से वह छाँव देगा !
जीवन का अनुभव है साथ अपने
 क्या डरना कोई घाव देगा ?
मूल्यांकन स्वयं का करें वक्त रहते
    मुक्ति / मौक्ष को जान पायें
यही तो समय है स्वयं को निखारें
    जानें कि हम कौन हैंं  ?

कुछ ऐसा बुढ़ापा हम जीकर दिखायें
नहीं डर किसी को बुढ़ापे का आये ,
बदलें सोच उनकी जो बोझ कहते,
पुनः नवयुवाओं से सम्मान पायेंं ।
प्राचीन हिन्दत्व लौटा के लाये ।
यही तो समय है स्वयं को निखारें
     जानेंं कि हम कौन है ?
                     
                    चित्र: गूगल से साभार...

हो सके तो समभाव रहें

जीवन की धारा के बीचों-बीच बहते चले गये ।  कभी किनारे की चाहना ही न की ।  बतेरे किनारे भाये नजरों को , लुभाए भी मन को ,  पर रुके नहीं कहीं, ब...